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कविता

रमजान चचा

राकेशरेणु


हमारी उम्मीद को बचाए रखने के लिए
प्रकट होते वह अचानक सांता क्लाउज की तरह
सहस्राब्दियों से एक-सी वेशभूषा में
बड़े-से धनुष की तरह टँगा होता धनुखा उनके कंधे से
दूर दिशाओं में गूँजती टंका कुतुहल से सुनते हम
देखते धनुखे का नर्तन उनके हाथों में।
धीरे-धीरे खड़ा हो जाता
सफेद और धुले बर्फ का पहाड़
जिसके पीछे उनकी भौंहें और मोटी दीखतीं
और सफेद
दाढ़ी की उजास बढ़ जाती
और भव्य दीखता माथे पर बँधा अँगोछा।
धनुर्धर राम से ज्यादा सशक्त लगते उनके हाथ
हाथों की गति अधिक सधी हुई
धनुखे की टंकार में होती धनुष से ऊँची खनक
निश्चित लय और गति होती उसमें
हमारी आँखों में झाँकते वह पहाड़ के पीछे से
रूई का सफेद गोला ऐसे बढ़ाते
मानो सौंप रहे हों पृथ्वी
वह भर देते अपनी सारी उष्मा सारा स्नेह हमारी रजाई में
यह ठीक-ठीक महसूस होता नींद में
जहाँ वह खेलते रूई के गोले से हमारे साथ
उछालते पृथ्वी प्रलयंकर की तरह।
फिर बहुत दिनों तक नहीं आए रमजान चचा
माँ आकाश की तरफ उँगली दिखाकर बतातीं
वह वहाँ चले गए हैं - वहाँ
हम देर तक देखते रहते गर्दन उठाए
उनकी धवल दाढ़ी का विस्तार
धनुखे की नर्तन दिखार्इ देता आसमान में। 


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